वाराणसी, 18 अगस्त (हि.स.)। श्रावण मास के पूर्णिमा तिथि पर सोमवार को ब्राम्हण समाज के लोग गंगा किनारे ‘श्रावणी उपाकर्म’ करेंगे। विप्र समाज विधि विधान से वैदिक मंत्रोच्चार के बीच श्रावणी उपाकर्म कर ज्ञात-अज्ञात पापों के शमन के लिए मां गायत्री और भगवान भाष्कर की उपासना करेंगे।पंचगव्य (गौघृत,गौदुग्ध,गोमय,गोदधि,गौमूत्र) का पान कर गंगा स्नान के बाद समाज के लोग ऋषि परंपरा का निर्वहन करेंगे। साथ ही पुराने जनेऊ को बदलकर नए यज्ञोपवीत को गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर धारण करेंगे। शिव आराधना समिति के डॉ मृदुल मिश्र ने बताया कि श्रावणी उपाकर्म की प्राचीन परंपरा की शुरुआत आदिकाल से ऋषि-मुनियों ने नदियों के किनारे ही की थी। श्रावणी उपाकर्म का पूरा संस्कार दूसरे जन्म के समान ही माना जाता है और व्यक्ति द्विज कहलाता है। उन्होंने बताया कि उपाकर्म का अर्थ है “प्रारंभ करना”। उपाकरण का अर्थ है “आरंभ करने के लिए निमंत्रण” या “निकट लाना”। वैदिक काल में यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल था। श्रावण शुक्ल पक्ष पूर्णिमा के शुभ दिन ‘रक्षाबंधन’ के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है।
उन्होंने बताया कि उपाकर्म में सर्वप्रथम होता है ‘प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प’। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गाय के दूध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषि पूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और ‘द्विज’ कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय है।