प्रयागराज, 27 अगस्त (हि.स.)। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 19 के तहत किसी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की मंजूरी देने वाले आदेश को ट्रायल कार्यवाही के किसी भी चरण में चुनौती दी जा सकती है। कोर्ट ने कहा कि धारा 19(3) के तहत हाई कोर्ट द्वारा विशेष न्यायाधीश के निष्कर्षों को पलटने पर लगाई गई रोक ऐसे मामलों में लागू नहीं होगी।
हाई कोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 19(3) उन परिस्थितियों को प्रदान करता है जिनके तहत अधिनियम के अनुसार विशेष न्यायाधीश के निष्कर्ष, सजा या आदेश को हाई कोर्ट द्वारा अपील, पुनरीक्षण आदि में पलटा या बदला जा सकता है। धारा 19(3)(बी) में प्रावधान है कि प्राधिकरण द्वारा दी गई मंजूरी में किसी त्रुटि, चूक या अनियमितता के आधार पर अधिनियम के तहत कार्यवाही को रोका नहीं जा सकता है, जब तक कि न्यायालय को यह विश्वास न हो कि ऐसी त्रुटि, चूक या अनियमितता के परिणामस्वरूप न्याय में विफलता हुई है।
जस्टिस राजीव मिश्रा ने कहा कि जहां मंजूरी आदेश अवैध है और यह मुद्दा मुकदमे के लम्बित रहने के दौरान उठाया गया है, तो ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 की उपधारा (3) में निहित निषेधाज्ञा लागू नहीं होती है, जो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत कार्यवाही में न्यायालय द्वारा पारित आदेश में हस्तक्षेप करने से सुपीरियर कोर्ट को रोके। यह आदेश हाई कोर्ट ने राजेंद्र सिंह वर्मा बनाम सीबीआई की केस में दिया है।
बीएसएनएल, आचरण, अनुशासन और अपील नियम, 2006 पर भरोसा करते हुए, हाई कोर्ट ने माना कि आवेदक के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने के लिए मुख्य प्रबंध निदेशक (बीएसएनएल), नई दिल्ली सक्षम प्राधिकारी हैं। यह माना गया कि निदेशक (एचआर) बीएसएनएल, नई दिल्ली के पास मंजूरी जारी करने का कोई अधिकार नहीं था और उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम किया है।
हाई कोर्ट ने कहा कि भले ही एक सक्षम प्राधिकारी ने आपराधिक मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी आदेश जारी किया हो लेकिन इसे चुनौती दी जा सकती है। यह भी माना गया कि भले ही 2017 में मंजूरी दी गई थी लेकिन 2023 में आपत्तियां उठाने पर लापरवाही का कोई असर नहीं होगा। क्योंकि अधिकार क्षेत्र का मुद्दा किसी भी स्तर पर उठाया जा सकता है।
न्यायालय ने कहा कि नंजप्पा बनाम कर्नाटक राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि धारा 19(3) किसी विशेष न्यायाधीश को उस मामले में अभियुक्त को मुक्त करने से नहीं रोकती है, जहां उसकी राय है कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19(1) के तहत मंजूरी आदेश अवैध था। यह माना गया कि विशेष न्यायाधीश गाजियाबाद कार्यवाही के किसी भी चरण में वैध मंजूरी आदेश के अभाव में अभियोजन की स्थिरता के बारे में आदेश पारित कर सकते हैं। तदनुसार यह माना गया कि चूंकि मुकदमा अवैध मंजूरी पर शुरू हुआ था, इसलिए आवेदक के सम्बंध में ट्रायल कोर्ट गाजियाबाद के आदेश को रद्द कर दिया गया और ट्रायल कोर्ट को आवेदक को मुक्त करने का आदेश दिया गया।