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नेपाल का गोसाईंकुंड जहां हलाहल विष से व्याकुल भगवान शिव को मिली थी शांति

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काठमांडू, 17 अगस्त (हि.स.)। जनै पूर्णिमा अर्थात् रक्षा बन्धन के अवसर पर नेपाल के पवित्र तीर्थ गोसाईंकुंड में स्नान के लिए श्रद्धालुओं का आना शुरू हो गया है। गोसाईकुंड क्षेत्र विकास समिति के अनुसार नागपंचमी से शुरू हुई धार्मिक यात्रा जनै पूर्णिमा तक जारी रहेगी।

गोसाईंकुंड तीर्थ में स्नान करने के लिए रामेछाप, दोलखा, काभ्रेपलानचोक, सिंधुपालचोक, नवलपरासी, चितवन, कास्की, मकवानपुर, पर्सा , काठमांडू, भक्तपुर, ललितपुर, धादिंग, नुवाकोट जिले से बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। भारत के भी कई प्रदेशों से श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। धार्मिक मान्यता है कि जनै पूर्णिमा के दिन सभी देवी-देवता गोसाईंकुंड में निवास करते हैं। इस कुंड में स्नान करने से सभी-देवताओं के दर्शन एक ही स्थान पर हो जाएंगे और सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।

यह धार्मिक यात्रा काफी कठिन होती है और काफी ऊंचाई पर होने के कारण यात्रा के दौरान किसी भी प्रकार की बीमारी या ऑक्सीजन की कमी से पीड़ित यात्रियों की सहायता के लिए सरकार की तरफ से नेपाली सेना, सशस्त्र पुलिस और नेपाल पुलिस की चिकित्सीय टीम और सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया गया है।

गोसाईंकुंड के बारे में पौराणिक मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान निकले कालकूट विष को पूरे विश्व कल्याण के लिए भगवान शिव ने स्वयं निगलते हुए अपने गले में धारण कर लिया था। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शिव विष की जलन को शांत करने के लिए अपने त्रिशुल से जिस क्षेत्र में वार कर जल का प्रवाह निकाला था यह वही गोसाईंकुंड झील के रूप में जाना जाता है। गोसाईंकुंड को शिवकुंड और त्रिशूलधारा भी कहा जाता है।

समुद्र तल से 4,380 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गोसाईकुंड विक्रम संवत् 2063 में विश्व विरासत की सूची में शामिल किया गया। वेटलैंड्स में भी सूचीबद्ध गोसाईकुंड लैंगटांग राष्ट्रीय सम्पदा के भीतर एक संरक्षित क्षेत्र है और इसे एक बहुत ही आकर्षक और मनमोहक स्थान भी माना जाता है।