वाराणसी,26 सितम्बर (हि.स.)। पूर्वांचल सहित बिहार और अन्य कई राज्यों में होने वाले ‘खेसारी’ दाल (केराय) पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के न्यूरोलॉजी विभाग ने शोध किया है। इस शोध पर आधारित लघु फिल्म खेसारी ‘कल आज और कल’ का दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में लोकार्पण किया गया। इसमें देश के कई जाने-माने न्यूरोलॉजिस्ट मौजूद रहे।
कार्यक्रम में सभी न्यूरोलॉजिस्टों ने कहा कि खेसारी दाल से लकवा के होने का कोई सीधा प्रमाण नहीं मिला है। खेसारी दाल को चिकित्सकों ने स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद बताया। इस कार्यक्रम में खेसारी दाल की खेती करने वाले बलिया और गाजीपुर के किसान भी मौजूद रहे। बीएचयू के न्यूरोलॉजिस्ट प्रो. यू. के. मिश्र ने ये जानकारी दी।
उन्होंने बताया कि खेसारी गरीबों के थाली का दाल है। जब वैज्ञानिकों ने खेसारी दाल खाने से लकवा की बीमारी होने का दावा किया तो सरकार ने इस दाल के वितरण, भंडारण और इस्तेमाल पर 60 के दशक में ही रोक लगा दी। लेकिन आज भी खेसारी खाद्य पदार्थों अरहर और चना की तुलना में बहुत सस्ता है। इसलिए खेसारी दाल का उपयोग नियमित रूप से बेसन और अन्य दाल उत्पादों में मिलावट करने के लिए किया जाता है। खेसारी दाल अरहर दाल के समान है, इसलिए इसका उपयोग होटलों, भोजनालयों द्वारा अपने लाभ को बढ़ाने के लिए किया जाता है। इसका उपयोग महंगी दाल-आधारित खाद्य वस्तुओं में मिलावट करने में होता है। न्यूरोलॉजिस्ट प्रो. यू. के. मिश्र ने यूपी में होने वाले लंगड़ेपन पर किये गये शोध को बताया।
उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि खेसारी खाने से पक्षाघात या यूं कहे कि न्यूरोलॉजिकल बीमारी का कोई सीधा संबंध नहीं पाया गया है। उन्होंने कहा कि इस विषय पर डॉ शांतिलाल कोठारी, प्रोफेसर एस एन रॉव जैसे महान चिकित्सा वैज्ञानिकों के शोध निरंतर याद रखे जायेंगे। बीएचयू चिकित्सा विज्ञान संस्थान के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रो.विजयनाथ मिश्र, प्रो. आरएन चौरसिया, प्रो.अभिषेक पाठक एवं इहबास नई दिल्ली के प्रो. सीबी त्रिपाठी की संयुक्त टीम ने प्रदेश के गाजीपुर जिले के मोहम्दाबाद सहित बिहार और मध्य प्रदेश के उन क्षेत्रों के 9 हजार लोगों पर शोध किया। जहां खेसारी के दाल का उत्पादन और इस्तेमाल हो रहा है।
प्रो. मिश्रा के नेतृत्व में बीएचयू की टीम ने निष्कर्ष निकाला कि अकेले फलियों के सेवन से लेथिरिज्म नहीं होता। खेसारी दाल में 31फीसद प्रोटीन, 41 फीसद कार्बोहाइड्रेट, 17 फीसद कुल आहार फाइबर, दो प्रतिशत वसा और दो प्रतिशत राख होती है, जो सूखे पदार्थ के आधार पर होती है। “लागत-प्रभावी होने के अलावा, इस दाल को पकाने के लिए कम ईंधन की आवश्यकता होती है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि गैर-न्यूरोटॉक्सिक होने के अलावा, लेथिरस दाल में वास्तव में कुछ कार्डियोप्रोटेक्टिव पोषक तत्व होते हैं, जैसा कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन हैदराबाद के वैज्ञानिकों के प्रकाशित अध्ययनों में है। टीम ने ये अध्ययन यूपी और बिहार के 20 जिलों में किया। गायक अष्टभुजा मिश्र ने खेसारी उत्पादन करने वाले किसानों के दर्द को अभिनय के जरिए बताया। भारतीय न्यूरोलॉजी एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रो. देवशीष चौधरी ने न्यूरोलेथिरिजम के वर्तमान संदर्भ के शोध एवं खेसारी दाल पर से प्रतिबंध हटाने के लिए समर्थन भी दिया।