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प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति सम्पूर्ण मानवीय विकास पर केन्द्रित : प्रो. आनंद शंकर सिंह

प्रयागराज, 21 नवम्बर (हि.स.)। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति सम्पूर्ण मानवीय विकास पर केन्द्रित एक पूर्ण शिक्षा व्यवस्था थी। जिसमें शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक आदि सभी पक्षों पर पर्याप्त ध्यान दिया गया था। यह बातें मंगलवार को ईश्वर शरण पीजी कॉलेज के प्राचार्य प्रो. आनन्द शंकर सिंह ने प्रतिभागियों को सम्बोधित करते हुए कही।

मालवीय मिशन टीचर्स ट्रेनिंग सेंटर, ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज द्वारा यू.जी.सी. एवं शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार के महत्वाकांक्षी शिक्षक प्रशिक्षण परियोजना, एनईपी.ओरियन्टेशन एवं सेन्सिटाइजेशन प्रोग्राम का शुभारम्भ ऑनलाइन मोड में किया गया। उद्घाटन के उपरान्त प्राचार्य प्रो. आनन्द शंकर सिंह ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की प्रासंगिकता को प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के संदर्भ में बताया। उन्होंने अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष एवं आनन्दमय कोष का संदर्भ देते हुए स्पष्ट किया कि किस प्रकार शिक्षा मानव के विकास को चरणबद्ध तरीके से आगे ले जाती थी और होलिस्टिक एवं मल्टी डिसिपलिनरी शिक्षा के उद्देश्य को पूरा करती थी। जो कि वर्तमान शिक्षानीति के प्रमुख ध्येय हैं। उन्होंने वैदिक कालीन शिक्षा की प्रमुख एवं अनुकरणीय वैचारिक संदर्भों को ग्रहण करने एवं इस दिशा में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 द्वारा किये जा रहे प्रयासों की सराहना की।

विशिष्ट वक्ता बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय इतिहास विभाग की प्रो. मालविका रंजन ने प्रकृति एवं मानवीय विकास को अपने व्याख्यान में रखा और विश्व में मानवीय विकास में प्रकृति एवं पर्यावरण के योगदानों की चर्चा की। उन्होंने लगभग सभी प्रचलित विषयों के विकास को इतिहास के साथ जोड़कर विस्तारित किया।

द्वितीय सत्र में रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता के परफार्मिंग आर्ट की प्रो. अमिता दत्त ने सम्बोधित किया। उन्होंने ‘‘बियान्ड रिजिड सर्टेनिटी : इनकरजिंग द आर्ट इन एजूकेशन’’ पर अपने विचार साझा किये। उन्होंने बताया कि किस प्रकार कला सम्पूर्ण शिक्षा का केन्द्रीय तत्व है एवं किस प्रकार कला को बहु अनुशासनिक शिक्षा पद्धति का मूलभूत हिस्सा बनाया। संचालन कार्यक्रम समन्वयक डॉ अविनाश पाण्डेय ने किया। अतिथियों का स्वागत प्रशिक्षण केन्द्र के डिप्टी डायरेक्टर डॉ मनोज दूबे ने किया। जबकि धन्यवाद ज्ञापन कार्यक्रम के सह समन्वयक डॉ एकात्मदेव ने किया