Saturday , November 23 2024

मनुष्य के कर्मों के आधार पर द्वापर युग से अकाल मृत्यु की घटनाएं प्रारंभ हुईं: पूज्य प्रेमभूषण जी महाराज

Babc7365bc8732b2091a4b1634e6eb53

जौनपुर,12 नवंबर (हि. स.)। सत्ययुग और त्रेता में धरती पर किसी भी मनुष्य की अकाल मृत्यु नहीं होती थी। मनुष्य के कर्मों के आधार पर द्वापर युग से अकाल मृत्यु की घटनाएं प्रारंभ हुईं और अब कलयुग में तो इसका इतना विस्तार हो गया है कि जन्म लेने वाला जातक कितने दिनों तक धरती पर रहेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है।

उक्त बातें जौनपुर के बीआरपी इंटर कॉलेज मैदान में निर्मित कथा मंडप में श्री राम कथा का गायन करते हुए पूज्य प्रेमभूषण जी महाराज ने मंगलवार को व्यासपीठ से कथा वाचन करते हुए कहीं।

सरस् श्रीराम कथा गायन के लिए लोक ख्याति प्राप्त प्रेममूर्ति पूज्य प्रेमभूषण जी महाराज ने समाजसेवी ज्ञान प्रकाश सिंह के पावन संकल्प से आयोजित सप्त दिवसीय रामकथा के तीसरे दिन व्यासपीठ से धनुष भंग यज्ञ और भगवान के विवाह की कथा का गायन करते हुए के कहा कि कलियुग में मनुष्य के धरती पर आने और जाने का कोई समय तय नहीं है। माता-पिता के सामने ही पुत्र अथवा पुत्री की अकाल मृत्यु हो जाती है। हमारे सद्ग्रन्थ बताते हैं कि जीव के अपने कर्म ही उसके प्रारब्ध का निर्माण करते हैं। भगवान के माया प्रकृति मनुष्य को नचाती है। मनुष्य के अपने हाथ में कुछ भी नहीं है फिर भी वह लोगों से उलझता चलता है अभिमान में रहता है।

महाराज श्री ने कहा कि इस युग में भी भगवान की भक्ति करने वाले भक्तों की कमी नहीं है। भगत को किसी को अपना परिचय नहीं बताना पड़ता है। आहार, विहार और व्यवहार से भगत के बारे में स्वयं पता चल जाता है। जैसे नशेड़ी समय निकाल कर अपना नशा कर लेते हैं वैसे ही भगत भी किसी भी जगह अपने भगवान का भजन कर ही लेते हैं। संसार में अच्छा बुरा दोनों ही उपस्थित है जो भगत लोग अच्छे को ग्रहण करते हुए अपने जीवन को धन्य बनाते हैं। अपनी दृष्टि पर संयम से यह संभव हो पाता है। जब हम अच्छा देखने का प्रयास करते हैं तो हमें सब कुछ अच्छा ही देखता है, हमें अपने भलाई के लिए अच्छा देखने का अभ्यास करने की आवश्यकता होती है। क्योंकि हम जो देखते हैं वही सोचते हैं और धीरे-धीरे वैसा ही बन जाते हैं।

महाराज जी ने कहा कि निरंतर भजन में रहने वाले की कभी मृत्यु नहीं होती है। वह अपनी कीर्ति से कुल परम्परा का निर्माण करते हैं और संसार में अमर हो जाते हैं। इसलिए सामान्य व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने जीवन के सभी क्रियाओं में संयुक्त रहते हुए भजन में भी प्रवृत्त हों।

महाराज श्री ने कहा कि संसार में कोई भी व्यक्ति छोटा बड़ा नहीं होता है। हर व्यक्ति का अपना अलग महत्व होता है। प्रकृति अपने हिसाब से चलती है और भगवान भी अलग-अलग कार्यों को संपादित करने के लिए उसके योग्य लोगों को ही निमित्त बनाते हैं।

धनुष भंग और श्री सीताराम विवाह से जुड़े प्रसंगों का गायन करते हुए पूज्य श्री ने कहा कि – जहां काम आवे सुई, का करे तलवार। तलवार से कुर्ते का बटन तो नहीं टांक सकते हैं। उसके लिए सुई की ही आवश्यकता होती है। किसी व्यक्ति से जबरन कोई कार्य भी नहीं कराया जा सकता है। कोई भी काम जिससे होना होता है उसी से होता है। करने वाले तो स्वयं भगवान हैं। इसलिए कार्य को करने के बाद यह अहम भाव नहीं होना चाहिए कि मैंने किया है।

पूज्यश्री ने कहा कि सनातन धर्म और परंपरा में गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने वाले वर-वधू यहीं से अपने जीवन की परमार्थ यात्रा की शुरूआत करते हैं। गृहस्थ आश्रम को सभी चार आश्रम में श्रेष्ठतम बताया गया है। सनातन परंपरा में विवाह संस्कार को समाज का मेरुदंड बताया गया है। सत्कर्म सोचने से नहीं होता है सत्कर्म के लिए सोचने वाले सोचते रह जाते हैं लेकिन करने वाला तुरंत उस कार्य को पूरा कर लेता है। मनुष्य को अपने जीवन में अपने कर्म को हमेशा धर्म सम्मत रखने की आवश्यकता होती है। जब हमारा कर्म बिगड़ता है तो फिर लाख प्रयास करने के बाद भी हमारी मती गति काल के वश में चली जाती है।

पूज्यश्री ने कहा कि मनुष्य को अपने जीवन में भगवान और भागवतों के साथ नहीं उलझना चाहिए। भगवान तो अपने प्रति किये गए किसी के दोष को क्षमा भी कर देते हैं। लेकिन, अगर उनके भक्तों के साथ किसी तरह का अन्याय होता है तो उसे भगवान कभी भी माफ नहीं करते हैं। यह हमारे विभिन्न सदग्रंथों में ही उदाहरण के साथ वर्णित है। मनुष्य को यह प्रयास करना चाहिए कि उससे कभी भी किसी साधु संत और भगत का अपकार नहीं हो। अगर ऐसा होता है तो परिणाम भी झेलने के लिए तैयार रहना होगा।

मनुष्य के जीवन में सुख और दुख दोनों का आना निश्चित है एक आता है तो एक चला जाता है। दुख हो या सुख दोनों ही अपने ही कर्मों के अनुसार ही मनुष्य के जीवन में आता है।

हमारे सद्ग्रन्थों ने एक सरल सिद्धांत दिया है भी है कि आदमी को सब कार्य छोड़कर ही भोजन करना चाहिए, हजार कार्य छोड़कर स्नान करना चाहिए और एक लाख कार्य छोड़कर भी दान करना चाहिए। चाहे वह दान थोड़ा ही हो। लेकिन, यह सभी कुछ छोड़ कर के भगवान का भजन करना चाहिए।

पूज्य श्री ने कहा कि भगवान को तर्क से नहीं जाना जा सकता है। कथा कर्म में महाराज श्री ने कई सुमधुर भजनों से श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। हजारों की संख्या में उपस्थित रामकथा के प्रेमी, भजनों का आनन्द लेते हुए, झूमते नजर आए। इस आयोजन के मुख्य यजमान ज्ञान प्रकाश सिंह ने सपरिवार व्यास पीठ का पूजन किया और भगवान की आरती उतारी।