अयोध्या, 16 नवंबर (हि.स.)। अयोध्या ही नहीं, उत्तर प्रदेश और बिहार में अनेक स्थान हैं जो आज भी रामायण की संस्कृति और विरासत को सहेज कर रखे हैं। बल्कि समाज आज भी भगवान श्रीराम की लीलाओं को जीवंतता के साथ जीता आ रहा है। ऐसे तो अयोध्या की सांस्कृतिक सीमाएं अनंत हैं। लेकिन हम यहां पर उत्तर प्रदेश और बिहार की चर्चा करें तो सबसे पहले हमें संस्कृति के बारे में थोड़ी चर्चा करनी होगी। संस्कृति किसी भी समाज की परंपराएं, लोकव्यवहार और जीवन शैली का सम्मिलित रुप होती है। दिग्विजय नाथ पीजी कॉलेज, गोरखपुर के प्राचार्य डॉ ओपी सिंह कहते हैं कि संस्कृति किसी समुदाय की परंपरा, मूल्यबोध और आचार संहिता का समुच्चय होती है। जब हमने सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के शोध छात्र रहे संत आदित्य आनंद से इस बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि संस्कृति किसी भी समाज का मेरुदंड होती है।
संस्कृति को लेकर विद्वानों ने अपनी-अपनी परिभाषाएं दी है। यदि हम स्वामी विवेकानंद के शब्दों में कहे तो संस्कृति वैदिक संस्कृति भारत की आत्मा है। यहां की आध्यात्मिकता ही भारत की आत्मा है। भारत का प्रत्येक कार्य उसी आध्यात्मिकता से प्रेरित है, जिसका उद्देश्य मनुष्य निर्माण और उसके चरित्र का निर्माण है। इसे ही दूसरे शब्दों में संस्कृति कहते हैं। इस दृष्टि से अयोध्या और मिथिला का संास्कृतिक समुच्चय ही भारत की संस्कृति है। भाषा, रहन-सहन, पूजा और आध्यात्म के बाहरी आवरण अलग हो सकते हैं लेकिन सभी की एक ही अंर्तधारा है। महर्षि विश्वामित्र के साथ श्रीराम और लक्ष्मण आतताई शक्तियों के वध के लिए अयोध्या से मिथिला की यात्रा करते हैं। जो शक्तियां संस्कृति को प्रदूषित कर रही थी।
भगवान राम अयोध्या से जनकपुर की यात्रा में निकलते हैं तो वर्तमान अंबेदकरनगर से होते हुए आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर, बलिया जिले में पहुंचे। यहां से गंगा नदी पारकर के बिहार के बक्सर, पटना, वैशाली, हाजीपुर, दरभंगा, मधुबनी, पूर्वी चंपारण होते हुए नेपाल के जनकपुर की यात्रा करते हैं। जनकपुर में भगवान शिव के पिनाक धनुष को भंग करके जनक की प्रतिज्ञा पूरी करते हैं और माता सीता के साथ पाणिग्रहण होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम पर शोध करने वाले श्रीराम सांस्कृति शोध संस्थान न्यास के डॉ रामअवतार शर्मा अपनी पुस्तक में भगवान श्रीराम की यात्राओं का शोधपरक विवरण देते हैं। वह लिखते हैं कि अयोध्या से 25 किमी दूर श्रृंगी ऋषि का आश्रम था, जहां पर राम ने बला और अतिबला की शिक्षा पाई थी। वाराणसी के पास छोटी काशी कहे जाने वाले गाजीपुर के सिदागर घाट पर ऋषियों से उन्होंने मुलाकात किया। गाजीपुर जिले से आगे वह बलिया में प्रवेश करते हैं जहां सरयू तट पर स्थित बैजल लखनेश्वर डीह में लक्ष्मण ने भगवान शिव की स्थापना किया। कुछ दूरी पर ही गंगा-सरयू संगम तट पर पहुंचे जिसे आजकल रामघाट कहा जाता है। बलिया जिले में ही कोरा में भगवान शिव ने कामदेव को भष्म कर दिया था। जिसे कामेश्वर नाथ कहा जाता है।
बलिया और बक्सर के पास में ही एक स्थाना चितबड़ागांव नाम से हैं। यहीं पर एक बड़े से टीले पर राक्षस सुबाहु रहा करता था जिसका श्रीराम ने वध किया। आगे बढऩे पर भरोली और उजियार नाम के स्थान आज भी विद्यमान हैं जहां के जंगलों में ताडक़ा रहा करती थी। ताडक़ा वध के स्थान को ही अब चरित्रवन कहा जाता है। हांलाकि स्त्री वध के बाद भगवान राम दुखी थे और उन्होंने इसी स्थान पर स्नान करके ताडक़ा का संस्कार किया था। इस स्थान को आजकल रामघाट कहा जाता है। यहीं पर भगवान शिव का मंदिर रामेश्वर नाथ उपस्थित है जहां भगवान राम ने पूजा किया था। बिहार के बक्सर जिले में ही एक स्थान अहिरौली है, जिसे अहिल्या स्थल के रुप में जाना जाता है। माना जाता है कि यहीं पर भगवान राम ने अहिल्या का उद्धार किया था।
बिहार के वैशाली जिले में गंगातट पर राम लक्ष्मण ने विश्राम किया था। पड़ोस में ही मधुबनी जिले में फुलहर गांव है, जहां माता सीता ने गौरी पूजन किया था। प्रथम बार श्रीराम ने सीता को यहीं पर देखा था। इस स्थान पर गिरीजा देवी का मंदिर है।
विनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मूरत मुस्कानी।।
(श्रीराम चरित मानस, बालकांड, गोस्वामी तुलसीदास)
मधुबनी जिले में ही थोड़ी दूरी पर बसहिया स्थान है, जहां पर राजा जनक ने स्वयंवर का अयोजन किया था। इसी स्थान पर विवाह मंडप भी बनाया गया था। थोड़ी दूरी पर ऋषि विश्वामित्र आश्रम आज भी मौजूद है। यहां पर दुधमति नदी है जिसे पार करके भगवान श्रीराम नेपाल पहुंचे थे। आज भी इस क्षेत्र में भगवान श्रीराम के दुल्हे के रुप में पूजा की जाती है। भगवान शिव का धनुष यहीं पर था जिसे भगवान राम ने तोड़ा था। श्रीराम चरित मानस में इस स्थान को तुलसीदास ने रंगभूमि लिखा है।
धनुष टूटने के बाद जो अवशेष गिरे थे, उसे धनुषा मंदिर के रुप में आज भी जाना जाता है। जबकि राम और सीता का विवाह जहां पर हुआ वह लक्ष्मीनारायण मंदिर आज भी विद्यमान है। लोक परंपरा में आज भी लोग विवाह के अवसर पर यहां की माटी ले जाते हैं जो मंडप में लगाया जाता है। विवाह परंपरा में दहेज दिखाई की रस्म होती है, भगवान श्रीराम को दहेज के रुप में जो कुछ भी मिला उसे रत्न सागर कहा जाता है। भगवान राम और सीता के विवाह संबंधित विद्याकुंड आज भी यहां पर हैं जिसका लोग श्रद्धा पूर्वक दर्शन पूजन करते हैं। जबकि जहां जिस खेत से सीता प्रगट हुई थी, उस स्थान को सीतामढ़ी कहते हैं। यह नेपाल से सटा हुआ बिहार का सीमांत जिला है।
रामायण काल में इस स्थान पर अनेक ऋषि-मुनियों ने तपस्या किया। जिनकी तपस्या से डरा हुआ रावण उनकी हत्या कर उनके रक्त से भरा घड़ा जमीन में गाड़ दिया था। जिसके प्रभाव से सीता का उदगम हुआ था। पूर्वी चंपारण में वह वेदी वन है, जहां विवाह की रस्म चौथे दिन पूरी की गई थी। जब भगवान श्रीराम की बारात अयोध्या के लिए लौटने लगी तब उसका विश्राम स्थल उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले में डेरवा नामक स्थान पर था। यहीं पर दोहरीघाट में भगवान परशुराम की भेंट श्रीराम से हुई थी। इसके बाद बस्ती जिले में बारात ने विश्राम किया जिसके बाद बारात अयोध्या पहुंंच गई थी। अयोध्या और मिथिला क्षेत्र की दो संस्कृतियों का मिलन का अद्भुत व्याख्या हमारे विभिन्न धर्मग्रंथों में हैं। यदि हम संस्कृति को देखे तो वास्तव में ऋषि विश्वामित्र को हम अपना प्रथम सांस्कृतिक राजदूत कह सकते हैं।